राजनीति में बातें हमेशा न्याय, कर्म, कर्तव्य, निष्ठा और सत्य की होती हैं पर काम स्वार्थ, लाभ, प्रलोभन, डर, और अहंकार की तर्ज पर चलता है। इसी राजनीतिक लाभ के लिए किस तरह अपराधों पर परदा डाला जाता है और किस प्रकार न्याय का मखौल बनाया जाता है इसको समझने के लिए 1992 में सामने आया अजमेर सेक्स स्कैंडल काफी है।
200 से अधिक स्कूली छात्राओं का यौन शोषण हुआ और बार-बार हुआ। यह तो संभव ही नहीं है कि छोटे से शहर में चल रहे इतने बड़े स्कैंडल की जानकारी शासन और प्रशासन को न हो। इसके बाद भी मामले में कार्रवाई तो दूर, 2 वर्षों में इसका सामने न आना राजनीतिक विफलता का परिणाम कहा जा सकता है। शासन इस मामले को दबाने के लिए इस कदर प्रयासरत रहा कि जिम्मेदारों की तंद्रा तोड़ने के लिए मई 15, 1992 को हिंदी डेली नवज्योति अखबार को कुछ लड़कियों की यौन शोषण की आपत्तिजनक तस्वीरें प्रकाशित करनी पड़ी।
वर्ष, 1992 में अजमेर में चल रहे ब्लैकमेल द्वारा छात्राओं के यौन शोषण का मामला आखिरकार दर्ज किया गया और मामले की जांच शुरू हुई। हालांकि प्रश्न यह है कि जब यह स्कैंडल 1990 के पहले से ही शहर में चल रहा था तो इसका पहले संज्ञान क्यों नहीं लिया गया? क्या किसी प्रकार शासन और प्रशासन ने पीड़िताओं के प्रति गैर-जिम्मेदार रवैया अपनाया था? मामले को दबाने से किसे लाभ मिल रहा था? पीड़िताओं को न्याय मिलने से जरूरी अपराधियों को बेनाम रखने के लिए कौन काम कर रहा था?
इसे समझने के लिए अजमेर की तत्कालीन समय की राजनीतिक स्थिति समझना जरूरी है। देखिए अपराधियों को अगर शासन से मदद मिल रही है तो इसका अर्थ है कि या तो धनबल अधिक है या राजनीतिक पहुँच। अजमेर सेक्स स्कैंडल में यह दोनों ही कारण शामिल थे। अपहरण और सामूहिक बलात्कार के सभी 18 आरोपी मोइनुद्दीन चिश्ती की अजमेर शरीफ सूफी दरगाह के कार्यवाहकों के कबीले से थे, या कहें कि खादिम परिवार से ताल्लुक रखते थे। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि आज ही नहीं बल्कि तब भी खादिम परिवार समाज में अलग रसूख रखता था। आर्थिक ताकत के साथ ही इस परिवार के राजनीतिक कनेक्शन भी प्रगाढ़ थे। जहां मामले का मुख्य आरोपी फारूक चिश्ती तत्कालीन अजमेर भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष था, वहीं सह आरोपी नफीस चिश्ती अजमेर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उपाध्यक्ष और अनवर चिश्ती अजमेर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का संयुक्त सचिव था। जब अपराधी पीड़िताओं को अपना निशाना बना रहे थे, उस समय राज्य और केंद्र दोनों स्थानों पर कॉन्ग्रेस की सरकार थी। मामले में लगातार पीड़िताएं सामने आने की कोशिश कर रही थी पर प्रशासन और शासन उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। जाहिर है वे किसी को बचाने की कोशिश कर रहे थे।

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राजनीति, कहने को न्याय का साथ देने के लिए है पर वास्तव में लाभ ही सर्वोपरि होता है। अगर अपराध के सामने आते ही कार्रवाई की जाती तो संभव था कि पीड़ितों को न्याय भी मिल जाता पर इससे कुछ गंभीर राजनीतिक नुकसान होना ही था। दरअसल जब यह मामले शहर में सामने आ रहे थे तो राजस्थान में विधानसभा चुनाव भी नजदीक ही थे। ऐसे में मामले में कॉन्ग्रेस नेताओं की संलग्नता उन्हें चुनाव में लाभ नहीं देने वाली थी। शायद यही कारण था कि कॉन्ग्रेस सरकार के दौरान मामले की एक भी एफआईआर दर्ज नहीं की गई।
हालांकि संभावनाओं को टटोला ही जाए तो पता चलेगा कि मामले को मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए भी दबाया जा सकता है। कॉन्ग्रेस सरकार चुनावों के नजदीक ऐसे मुस्लिम अपराधियों को, जो शहर के शक्तिशाली परिवार से भी थे, के खिलाफ कार्रवाई करके न तो मुस्लिम वोट बैंक को खोना चाह रही थी ना ही खादिम परिवार के समर्थन को। ऐसे में मामले को राजनीतिक समीकरण में सबसे सटीक बैठ रहा था।
मामले को दबाने का फायदा भी तत्कालीन सरकार को नहीं मिला क्योंकि उस समय हुए चुनावों में भाजपा की जीत हुई और भैरोंसिंह शेखावत के कार्यकाल में अजमेर सेक्स स्कैंडल मामले को दर्ज कर पुलिस कार्रवाई शुरू की गई। हालांकि कार्रवाई में कुछ निष्कर्ष निकलता इससे पूर्व राष्ट्रीय स्तर पर परिस्थितियां बदल गई थी जिसका असर राजस्थान पर भी पड़ा। उस समय बाबरी मस्जिद का ढ़ांचा ध्वस्त होने के कारण राजस्थान में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था। इसका सीधा फायदा सत्ता रूढ़ सरकार ने उठाया और केंद्र से मामलो को हर तरह से कमजोर करने की कोशिश की गई। उस समय कुछ पत्रिकाओं का यह भी दावा था कि पीड़ित छात्राओं को डरा-धमकाकर दिल्ली में कुछ वीआईपी और वीवीआईपी को खुश करने के लिए भी भेजा जाता था। ऐसे में मामला सामने आने के बाद भी कार्रवाई नहीं होने का कारण योजनागत राजनीतिक मंशाएं कही जा सकती है।
हालांकि एक बार फिर राजस्थान में भैरोंसिह शेखावत मुख्यमंत्री बने और मामले में फिर से कार्रवाई शुरू हुई। यह वो समय था जब मामले को सामने आए 3 से 4 वर्ष बीत चुके थे और कई पीड़िताएं शहर छोड़ चुकी थी तो कुछ ने आत्महत्या कर ली थी। मामले में शक्तिशाली अपराधियों को देखते हुए अधिकतर छात्राएं खुलकर सामने आने से भी कतराती थी। ऐसी परिस्थियों में राजनीतिक समर्थन न मिलने से भी उनका मनौबल टूट चुका था। इसका प्रभाव कार्रवाई पर पड़ा। तत्कालीन राज्य भाजपा सचिव ओंकार सिंह लखोटिया ने स्वीकार किया कि ‘कार्रवाई बहुत देर से हुई है’। पुलिस ने भी दबे स्वर में स्वीकार किया था कि मामले को साम्प्रदायिक हिंसा फैलने के डर से दबाया गया था। कथित धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए पीड़िताओं की आवाजों को झुठलाया जा रहा था और अजमेर में सभी इसे समझते हुए चुप थे।
राजनीतिक लाभ-हानि के इस मामले में किसका नुकसान हुआ यह तो बताने की आवश्यकता नहीं पर लाभ के विषय पर बात की जा सकती है। अपराध को दबाकर संभवत कॉन्ग्रेस सरकार ने अपने नेताओं को इसमें नाम शामिल होने के धब्बे को धोने का प्रयास किया था। मुस्लिम तुष्टिकरण, राजनीतिक शक्ति का दुरुपयोग एवं कथित धर्मनिरपेक्षता के चलते लंबे समय तक मामला सामने न आने का असर यह हुआ कि मामले के अधिकतर अपराधी या तो बिना सजा के या बहुत कम सजा के बाहर घूम रहे हैं।
6 वर्षों की लंबी सुनवाई के बाद मामले में पहला फैसला 1998 में सामने आया था जिसमें अजमेर जिला अदालत ने आठ संदिग्धों को दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इनमें भारतीय युवा कांग्रेस के एक पूर्व नेता, फारूक चिश्ती को कथित तौर पर मानसिक रूप से अस्थिर घोषित कर दिया गया जिसके बाद से वो बाहर है। 1998 तक, उनका परीक्षण अभी भी लंबित था।

एक अन्य संदिग्ध, पुरुषोत्तम ने 8 मार्च, 1994 को जमानत पर रिहा होने के तुरंत बाद कथित तौर पर आत्महत्या कर ली थी। हालांकि, रिपोर्टों का दावा है कि वह अभी भी जीवित है। सोहेल गनी सहित छह अन्य संदिग्ध गायब हो गए और अब भी फरार हैं। सलीम नफीस चिश्ती को जनवरी 2012 में पकड़ लिया गया था, लेकिन उसे जमानत मिल गई और उसके बाद इस बारे में और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने आठ में से चार की आजीवन कारावास की सजा को घटाकर 10 वर्ष कर दिया, जबकि अन्य चार की आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखी। अदालत में वकीलों की ओर से दलील दी गई थी कि अपराधियों के लिए आजीवन कारावस की सजा बहुत कठोर निर्णय है।
संभव है कि न्यायलय में सजा बहुत कठोर मामले के कमजोर होने के कारण प्रतीत हुई। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि मामले कमजोर करने के लिए ही पुलिस, पत्रकार और पीड़िताओं पर दबाव बनाया गया था। धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक सौहार्द का नाम लेकर वोट बटोरने की राजनीति नीति को हटाकर अगर सरकार ने इसमें निष्पक्ष कार्रवाई की होती तो संभव था कि अपराधी अभी भी जेल में होते और पीड़िताएं सुरक्षित महसूस करती। राजनीतिक लाभ को दरकिनार कर के मामले में लॉ एंड ऑर्डर स्थापित किया जाना चाहिए था। राजनीतिक लाभ में लिए गए निर्णय के परिणाम समझने के बाद लेख के अगले संस्करण में हम समझेंगे कि क़ॉन्ग्रेस सरकार न्याय स्थापित करने में क्यों विफल रही? आखिरकार सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह समाज के समक्ष साबित करे कि आरोपी की वित्तीय, राजनीतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि के बावजूद ‘कानून का शासन’ सर्वोच्च है।
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