प्रॉपगेंडा का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि अन्य किसी भी विचाधारा के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया जाए या फिर किसी भी तरह से उसकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाए। इस देश के सिस्टम पर एक लम्बे समय तक राज करने वाली वामपंथी विचारधारा ने दक्षिणपंथ के अस्तित्व को ही एक प्रश्न बनाकर इस बात की प्रामाणिकता पर हस्ताक्षर कर दिया। इस दौरान लोगों को यह जानने का अवसर ही नहीं दिया गया कि लोकतंत्र में किसी भी ‘-ism’ (वाद) का पहला लक्ष्य हर विचार की सुनवाई होना चाहिये।
साल 2014 से वैसे भी देश में ‘डेमोक्रेसी खतरे में है’। यहाँ आज़ादी नहीं है बोलने की, यहाँ आज़ादी नहीं है लिखने की, यहाँ के जो लीडर हैं उनसे यहाँ के मुस्लिम को खतरा है, ईसाईयों को खतरा है। लेकिन एक बार नज़र डाल लेते हैं कि ये बातें कहाँ से निकल रही है और कितनी दूर जा रही हैं।
बात निकलती है वामियों की गलियों से जिसका एक ही नारा है कि ‘डेमोक्रेसी ख़त्म हो गयी है’। आजकल लेफ्ट-राइट के बारे में ‘इंडेपेंडेंटली’ लिखने वाले स्तंभकार खुद ही इंडेपेंडेटली डेमोक्रेसी का ढिंढोरा पीटते हैं।
क्राउडफंडिंग के नाम पर वामपंथियों का खेल
इन्हीं के जैसे एक जाने माने स्तंभकार हैं एजाज़ अशरफ, जो कि समाचार पत्र ‘मिड-डे’ के एक स्तंभकार हैं। वही एजाज़ अशरफ़ जिसने पुलवामा के बलिदानी सैनिकों के शवों की जाति तलाशने का कारनामा किया था। उन्होंने भाजपा और RSS नेताओं पर अपने विचारों को रखने का आरोप लगाया है। एजाज़ की समस्या है कि लोकतंत्र द्वारा चुने गए लोग लिख और बोल क्यों रहे हैं, जनता से संवाद क्यों कर रहे हैं।
मिड-डे, स्क्रॉल, कारवाँ के स्तंभकार एजाज़ का दर्द क्या है
पहली बात तो ये है कि एजाज़ के ही लॉजिक से हमारी भी कोई ऐसी मजबूरी नहीं है कि हम इस न्यूज़पेपर को न्यूज़पेपर कहें और एजाज़ अशरफ़ को स्तंभकार कहें। लेकिन हम हैं असली लिबरल और हमें दूसरों के विचारों को सुनने या जानने से किसी क़िस्म की कोई कुंठा नहीं होती, हाँ इतना अधिकार हम अवश्य अपना सुरक्षित रख लेते हैं कि हम एजाज़ के लेख की गंभीरता को दस में से शून्य नंबर दे दें।
एजाज़ अशरफ़ के इस ताज़ा लेख का शीर्षक है ‘BJP RSS writers as Columnist’ यानी ‘भाजपा एवं आरएसएस के स्तंभकार’
एजाज़ की ‘रिसर्च’ के अनुसार RSS-BJP के लीडर्स कुछ 640 लेख साल 2014 से अभी तक लिख चुके हैं, जिसमें कि 337 लेख अंग्रेज़ी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस ने प्रकाशित किए हैं, 97 हिंदुस्तान टाइम्स ने और टाइम्स ऑफ इंडिया ने 206 लेख। इनकी गणित इन्हें यह भी बताती है कि हर पांचवे दिन एक लेख किसी RSS या BJP नेता का होता है जो किसी तीसरे राष्ट्रीय समाचार पत्र में छप कर आता है। इनकी ये भी शिकायत है कि पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, जो कि एक अनुसूचित जाति से संबंध रखे हैं, जिस वर्ग का हितैषी होने का दावा यही वाम-लिबरल गैंग करता है, ने जो लेख लिखे उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम क्यों लिखा जा रहा है?
तो क्या एजाज अशरफ़ के अनुसार भारत के राष्ट्रपति को युगांडा के प्रधानमंत्री का जिक्र करना चाहिए था?
क्योंकि इनकी लेखन के इतिहास से तो यही झलकता है कि एजाज़ स्वयं सिर्फ़ एक ही विचारधारा से लिखते हैं, और स्वयं उन्होंने अपने लगभग हर लेख के शीर्षक में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम इतनी बार लिखा है, लेकिन दूसरों के लेखों की गिनती एजाज़ अवश्य कर रहे हैं।
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ये कुछ लेख हैं, जिनमें एजाज़ ने प्रधानमंत्री मोदी का ज़िक्र किया है। पहला लेख सितंबर 20, 2019 का है, जिसका शीर्षक है “Politics Of Fear: Why Modi and BJP thrive on it” हिन्दी में इसका अर्थ होता है, “भय की राजनीति: भाजपा और आरएसएस इसे कैसे भुना रहे हैं।”
एजाज़ का दूसरा लेख कुछ ही समय पहले का है, जिसका शीर्षक था, ‘Will our democracy survive MODI?’ यानी, ‘क्या हमारा लोकतंत्र मोदी से बच पाएगा?’
तीसरा, एक वामपंथी प्रॉपगेंडा पोर्टल स्क्रॉल का ही लेख है जिसका टाइटल ही है ‘People are unhappy but not angry with Modi’ यानी ‘लोग मोदी से खुश नहीं हैं लेकिन वो ग़ुस्सा भी नहीं हैं।’
इसी तरह से चौथा, पांचवा, छठा, सांतवा… यह लिस्ट बहुत लंबी है।
अब एजाज़ के इस ताज़ा लेख की एक लाइन ये पढ़िए – It’s hard to figure out whether editors accept articles from RSS-BJP writers out of their fear of offending them, or whether they commission them to send pieces.
इसका हिन्दी में ये अर्थ है कि “ये समझ पाना मुश्किल है कि इन अख़बारों के एडिटर RSS-BJP के डर से ये आर्टिकल छपते हैं या फिर उन्हें ये लिखने के पैसे दिये जाते हैं?”
एजाज़ का अगर पूरा करियर देखें तो शायद वो अपना एक्सपीरिएंस सामने रख रहे हों, या तो उन्होंने किसी को डरा-धमका कर कभी लेख लिखे या फिर पैसे खा कर। इंसान अपने अनुभव के आधार पर ही ऐसे नतीजों पर पहुँचता है। हो सकता है कि एजाज़ बस थोड़ा ज़्यादा ईमानदार हो गए। एजाज़ का सवाल उलट दिया जाना चाहिये कि उन्होंने ये लेख गांधी-नेहरू परिवार के दबाव में लिखा या फिर उन्होंने इसे लिखने के कितने पैसे लिए?
एजाज़ ने अगर दिमाग़ को थोड़ी देर शांत रखकर सोचा होता तो वो देख पाते कि अगर भाजपा की विचारधारा आरएसएस से उपजी है तो लोकतंत्र के इन नायकों को लोक में अविश्वास क्यों हो गया है? क्योंकि ‘लोक’ ने ही उन्हें भारी बहुमत से सत्ता में बिठाया है। ऐसे में क्या एजाज़ यह चाहते हैं कि लोगों की आवाज़ अख़बारों तक आना फासीवाद है? इसलिए अब आरएसएस को मुख्यधारा और उदारवादी राजनीतिक विमर्श में जगह मिली है, जो कि पहले नहीं थी तो इसमें क्या नुकसान है? क्या एजाज़ को लोकतंत्र से भी समस्या है?
सच तो ये है कि सदियों से इकतरफ़ा संवाद करने की आदत पड़ गई है और अब उन्हें दूसरों का कुछ भी कहा हुआ ऐसा लगता है जैसे कानों में कोई पिघलता शीशा डाल रहा हो, ऊपर से 2024 में भी नेहरू-गांधी परिवार के सत्ता में लौटने की उम्मीद जितनी घटती जा रही है, देश का यह कथित वाम-लिबरल गैंग उतनी ही तेज़ी से अपनी कुंठा ज़ाहिर करने लगा है। जिन नेहरूवादियों ने आज तक इंदिरा के आपातकाल को फासीवाद कहने की हिम्मत तक नहीं की उन्हें आज इस बात से तकलीफ़ है कि लोकतंत्र में बहुमत से चुना गया नेता अख़बार के माध्यम से अपने लोगों से संवाद क्यों कर रहा है।
समस्या अगर एजाज़ की ये है कि राजनेता अख़बारों में कॉलम क्यों लिख रहे हैं तो कांग्रेस नेता पी चिदंबरम, शशि थरूर, जयराम रमेश तो हमेशा से ही अख़बारों में लिखते रहे हैं। चिदंबरम को तो जेल भी INX मीडिया केस से जुड़े मामले में हो चुकी है।
स्तंभकार तो महात्मा गांधी भी थे, तो एजाज़ ख़ान क्या चाहते थे कि जनसंचार का काम नेहरू को सौंप कर बापू दिनभर सिर्फ़ चरखा ही चलाते रहते?
आजकल कुछ ऐसे भी स्तंभकार हैं जो औरंगज़ेब को भारत का आर्किटेक्ट बताते हैं, असल में एजाज़ अशरफ़ का असली दर्द यही है। रोमिला थापर और औद्रे ट्रूश्क (Audrey Truschke) जैसे नामों को स्तंभकार बना दिया जाता है, रामचंद्र गुहा लगभग हर मामले में एक्सपर्ट है। ऐसे दौर में जब इन सभी का वर्चस्व ख़त्म हो रहा है तब एजाज़ अशरफ़ जैसे लोगों की बौखलाहट कि वजह भी स्पष्ट हो जाती है। ऐसे कितने निवाले थे, जो इनके मुँह ए हर आम चुनाव के बाद छिनते जा रहे हैं।