15 अक्टूबर, 1932 को देश के पहले विमान ने उड़ान भरी, ऊँचाइयों पर पहुँचा, साजिशें हुईं, राष्ट्रीयकरण के नाम पर धोखा हुआ, सेवाओं पर प्रश्न चिह्न और फिर से उत्थान तक का सफर तय किया। हम बात कर रहे हैं टाटा एयरलाइंस की, जिसकी कहानी किसी फिल्मी पटकथा सी है और जिसमें विलेन रफी अहमद किदवई और कॉन्ग्रेस सरकार बनी।
तो, शून्य से शुरू करते हैं..
टाटा परिवार, देश का अग्रणी उद्योग परिवार.. इन्होंने ही अंग्रेजी हुकूमत के दौरान देश में इस्पात, इंजीनियरिंग, होटल और अन्य उद्योगों के विकास को दिशा दी। इसी परिवार में 29 जुलाई, 1904 को जन्मे जेआरडी के नाम से मशहूर जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा, 1929 में फ्लाइंग लाइसेंस पाने वाले पहले भारतीय। यह अलग बात है कि इस लाइसेंस के लिए उन्हें 3 साल तक अंग्रेजों से मगजमारी करनी पड़ी थी।
1930 में भारत से इंग्लैंड विमान उड़ाने वाले भी वो पहले भारतीय पायलट थे। विमानों को लेकर अपनी आकांक्षा के चलते उन्होंने 1932 में कराची से बॉम्बे के लिए पहली कार्गो सर्विस का शुभारंभ किया और अगले ही वर्ष टाटा एयरलाइंस अस्तित्व में आई। कहते हैं, विमान सेवा से उनका मकसद मुनाफा कमाना नहीं था। इसके लिए तो उनके पास व्यावसायिक फैक्ट्रियां थी हीं।
खैर, टाटा एयर सर्विस की बात करते हैं। शुरुआती दौर में एयरलाइन मुख्य रूप से मेल सर्विस या कार्गो सेवाएं ही देती थी। उच्च गुणवत्ता की सेवाएं प्रदान कर टाटा एयर विश्व की अग्रणी सेवाओं के सामने खड़ी हो गई। 1938 तक कंपनी का नाम टाटा एयरवेज ही रहा और यह सफलता के नए झंडे गाड़ती रही। साथ ही, इसी वर्ष इसने भारत से श्रीलंका के लिए एक अंतरराष्ट्रीय उड़ान भी भरी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान टाटा एयर सर्विस ने रॉयल एयरफोर्स की सहायता की। सेना की टुकड़ियों को लाने ले जाने के कार्य से लेकर सप्लाई चेन के प्रबंधन तक विमान सेवा ने अद्वितीय काम किया। 29 जुलाई, 1946 को टाटा एयर सर्विस पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन गई और ऐतिहासिक नाम सामने आया एयर इंडिया।
8 जून, 1948 को आजाद भारत से एयर इंडिया ने पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान मालाबार प्रिंसेस के जरिए मुंबई से लंदन के लिए भरी। फ्लाइंग बोर्ड में शामिल रहे जेआरडी टाटा ने समय पर लंदन पर पहुँचते ही पत्रकारों से कहा-
अपनी घड़ियां सेट कर लो दोस्तों, हम समय पर हैं
सब ठीक-ठाक से अधिक अच्छा चल रहा था। एयर इंडिया इकलौता हीरा था जो अंग्रेजों की नजर से बच गया था। अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए भारत सरकार से मिलकर एयर इंडिया इंटरनेशनल की शुरुआत कर चुकी थी। इसके 49 फीसदी शेयर भारत सरकार के पास थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध का खात्मा हो गया था और आजाद भारत में कई एयर सेवाएं शुरू हो चुकी थीं। हालाँकि, बाजार में अभी भी दबदबा एयर इंडिया का ही था। जिस स्तर की सेवाएं जेआरडी टाटा उपलब्ध करवा रहे थे उससे अन्य कंपनियां कंपीट नहीं कर पा रही थीं।
एयर इंडिया की तरक्की पर काली छाया तब पड़ी जब दृश्य में संचार मंत्री रफी अहमद किदवई का आगमन हुआ। किदवई को एक ‘चमत्कारिक’ विचार आया कि देश के चारों कोनों में एयरक्राफ्ट की मदद से पोस्टल सेवा उपलब्ध करवाई जाए।
विचार अच्छा था लेकिन, जेआरडी टाटा का सुझाव था कि इसे लागू करने से पहले नाइट लैंडिंग सुविधाओं को दुरुस्त करना होगा। किदवई इस पर जिद्दी रवैया अपनाते हुए इंकार कर देते हैं।
भारत विमानन सेवा में अग्रणी था यह बात सरकार में बैठे उन मंत्रियों को पच नहीं रही थी जो इससे अलग ही ‘मुनाफा’ चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका ने बाजार में डकोटा विमान उतारे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इन्हें देश में आने की मंजूरी दी थी, जिससे 48 विमान भारतीय बाजार में उतरे।
किदवई ने अपनी बात पर अडिग रहते हुए 1948 में नई हिमालयन ऐविएशन की शुरुआत की। अब इसके पीछे राजनीतिक लाभ जो भी रहे हों, जेआरडी टाटा ने इस पर एक खुला पत्र लिखकर कहा कि जो नई विमानन सेवाएं लाई जा रही हैं, वो भारतीय बाजार में सफल नहीं होंगी।
किदवई और जेआरडी के बीच आकर नेहरू ने एयर इंडिया की सेवाओं को बेहतर बताते हुए बॉम्बे हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जीएस राजाध्यक्षा के नेतृत्व में एक कमिटी गठित की गई थी।
कमिटी ने भी कहा कि ‘जब देश में 4 कंपनियां भी मुनाफा नहीं बना पा रही है तो आप दर्जनों कंपनियों को क्यों निमंत्रण दे रहे हैं’? कमिटी के निर्णय से सरकार तो बैकफुट पर आ जानी चाहिए थी लेकिन, इसके बाद सरकार ने अपना मास्टर कार्ड खेला और फिर बात आई राष्ट्रीयकरण की।
जेआरडी टाटा की बात सच हुई, थोक में आई कंपनियां बाजार में मुनाफा नहीं बना पाई। सरकार ने बिना विचार विमर्श के निर्णय लेते हुए सभी कंपनियों को मिलाकर 1953 में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
टाटा ने इस राष्ट्रीयकरण को बताया था साज़िश
जेआरडी टाटा ने इसे पीछे के दरवाजे से शुरू हुई योजना बताया और नेहरू को इस संबंध में पत्र भी लिखा और उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर भी कहा कि सरकार ने टाटा के साथ जानबूझकर गलत किया है और यह राष्ट्रीयकरण टाटा की हवाई सेवाओं को कुचलने की साजिश है।
नेहरू इस पर शर्मसार थे और उन्होंने जेआरडी के सामने स्वीकार किया था कि कम से कम उन्हें राष्ट्रीयकरण को लेकर सूचित किया जाना चाहिए था। बहरहाल, जेआरडी में राष्ट्रवाद की भावना इतनी उच्च थी कि इन सब के बाद भी उन्होंने अगले 3 दशकों तक एयर इंडिया में सरकार के लिए काम किया वो भी 1 रुपए प्रतिमाह के वेतन पर।
जब तक टाटा का नाम विमानन सेवा से जुड़ा रहा तब तक एयर लाइन ने दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की भी की। हालाँकि, 1978 में जेआरडी टाटा को हमेशा के लिए एयर इंडिया बोर्ड के चेयरमैन से मोरारजी देसाई सरकार द्वारा अलग कर दिया गया। मोरारजी सरकार के निर्णय पर उन्होंने कहा, “मुझे लग रहा है जैसे किसी पिता से उसकी संतान छीन ली गई हो।”
हालाँकि, 1980 में इंदिरा गाँधी द्वारा उन्हें दोबारा चेयरमैन के पद पर बैठाया गया जिस पर वो 1982 तक रहे। इसके बाद से ही एयर इंडिया मनमोहन सिंह सरकार के शुरुआती दिनों तक अच्छा काम कर रही थी लेकिन, इसके बाद सरकार की ढ़िलाई और लापरवाही से यह विमानन सेवा कभी नहीं उबर पाई और इस पर 38,366.39 करोड़ रुपए का कर्ज हो गया।
भारत की शान रही एयर इंडिया को एक बार फिर खड़ा करने के लिए मोदी सरकार ने 2017 में इसके निजीकरण को मंजूरी दी। 2021 में विनिवेश की प्रक्रिया पूरी होने के बाद एयर इंडिया अपने घर वापस लौट गई।
मतलब कि टाटा समूह ने ही इसे 18000 करोड़ में खरीद लिया। जिसके बाद रतन टाटा ने कहा,
“Welcome Back, Air India”