जब ज्योतिष-भविष्यवाणी वगैरह करने वाले बेजान दारूवाला की मृत्यु हुई तो अलग-अलग किस्म की कई बहसें भी नजर आयीं। हमें उनके साथ ही नारायणन की अंग्रेजी कहानी ‘एन एस्ट्रोलोजर डे’ याद आई। उसका भविष्यवाणी करने वाला भी वैसे ही सुन्दर वाक्य गढ़ता था, जैसे बेजान दारूवाला। उसका एक प्रिय जुमला था “तुम्हें अपनी मेहनत का पूरा फल नहीं मिलता”! इस वाक्य से अधिकांश लोग सहमत होते, क्योंकि सबको लगता है कि वो जितनी मेहनत कर रहा है, उसका पूरा नतीजा, लाभ, उसे मिल नहीं रहा।
ये भी छल का एक अच्छा तरीका है। किसी और को आपके नुकसान का जिम्मेदार बताना, या किसी ऐसे पर दोष थोपना जो दोषारोपण पर जवाब ना दे, अक्सर इस्तेमाल होता है। मृत व्यक्ति जवाब नहीं देगा, तो उसे गलत बता सकते हैं। भारतीय इतिहास से लोग कहने नहीं आने वाले कि वो मर्दवादी थे या नारीवादी, इसलिए ये भी कर सकते हैं। जिसे तथाकथित वैज्ञानिक सोच कहा जाता है, उसमें शोध के बिना किसी बात को सही ही नहीं, गलत भी नहीं कहा जा सकता। बिलकुल वैसे ही जैसे निष्पक्ष जांच तो कभी भारतीय इतिहास या शिक्षण पद्दतियों की हुई नहीं तो उन्हें सही-गलत, मर्दवादी या नारीवादी नहीं कह सकते।
ये छल का आसान तरीका फिर भी इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है। दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है। हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता। भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था। इनके राजाओं के नामों मे परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है।
सातवाहन राजवंश के राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है। कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे। अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं। एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं। ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था। इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं।
बाल विवाह: हिंदू इतिहास और सत्य
कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था। भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था। पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं। शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था। नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है। महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है।
दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं। ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है। उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं। चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है। मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी।
अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें ! हाल फ़िलहाल में अगर ऐसे नामों का सामने आना देखना हो तो कभी इंदौर के बारे में सोचिये। कभी एक बार हम लोग इंदौर में किसी सर्वेक्षण के सिलसिले में थे और इंदौर में एक आड़ा बाजार है। हम लोगों ने पूछा ये अजीब नाम क्यों ?
जिस स्थानीय व्यक्ति से पूछा था, उन्हें भी नहीं पता था। मगर उन्होंने पूछ-ताछ करके इस बारे में मालूम करने की बात कही और मामला आया-गया हो गया। मेरे दिमाग में सवाल अटका पड़ा रहा। बिहारी की हिन्दी के हिसाब से बाजार अगर टेढ़ा होता तो उसे आड़ा कहना समझ में आता। “टंग अड़ाना” जैसी कहावतों वाला रोकना या अड़ जाना भी मतलब हो सकता था। आखिर कैसे ये बाजार लोगों को रोक लेगा, या टेढ़ा है, क्यों आड़ा नाम होगा? इस सवाल का जवाब हमें कुछ साल बाद कहीं और मिला। किसी दौर में इंदौर होल्कर मराठा शासकों की राजधानी हुआ करता था और राजमाता अहिल्याबाई होल्कर वहीँ पास में रहती थीं।
उनके बनवाए मंदिर अब भी उस इलाके में हैं। इस्लामिक हमलों में भग्न, उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक के करीब करीब सभी मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय राजमाता अहिल्याबाई को जाता है। कहते हैं एक रोज उनके पुत्र मालोजी राव का रथ इस रास्ते से निकल रहा था और हाल ही में जन्मा एक बछड़ा उनके रथ के आगे आ गया। रथ रुका नहीं और टक्कर से बछड़े की मृत्यु हो गई। गाय वहीँ मृत बछड़े के पास बैठी थी कि वहां से राजमाता अहिल्याबाई का रथ गुजरा। उन्होंने रथ रोककर पूछताछ की कि ये क्या हुआ है? पूरी बात मालूम करके वो दरबार में पहुंची और मालोजी राव की पत्नी मेनाबाई से पूछा कि माँ के सामने ही बेटे को मार देने वाले की क्या सजा होनी चाहिए?
मेनाबाई बोली, उसे तो प्राण दंड मिलना चाहिए। राजमाता अहिल्याबाई ने मालोजीराव के हाथ पैर बांधकर, जहाँ बछड़ा मरा था वहीँ डालने का आदेश दिया और कहा कि इसपर रथ चढ़ा दो! अब राजमाता ने बछड़े जैसा ही रथ की टक्कर से मारने का दंड तो दे दिया लेकिन कोई सारथी रथ चलाने को तैयार नहीं था। आख़िरकार राजमाता खुद ही रथ चलाने रथ में सवार हो गयी। राजमाता को रथ बढ़ाते ही रोकना पड़ गया, क्योंकि मालोजी को बचाने एक गाय बीच में आ गयी थी। राजमाता रथ बढ़ाती कि वही गाय फिर रथ के सामने आकर खड़ी हो जाती जिसका बछड़ा मलोजीराव के रथ से मारा गया था। बार-बार हटाये जाने पर भी गाय ने अड़कर मलोजीराव को बचा लिया।
अपना बछड़ा खोकर भी उसे मारने वाले की जान बचाने पर अड़ जाने वाली इस गाय की वजह से इंदौर के इस बाजार का नाम “आड़ा बाजार” है। भारत की रानियों/राजमाताओं के बारे में सोचते वक्त अलग तरीके से सोचने की जरुरत होती है। राजमाता अहिल्याबाई होल्कर के बारे में सोचने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि उत्तर भारत के जिस भी पुराने मंदिर को आप देखते हैं, लगभग हरेक उनका बनवाया हुआ है। दिल्ली का कालकाजी मंदिर जिसे औरंगजेब ने तुड़वाया था, वो हो या गया का विष्णुपद मंदिर, हरेक के जीर्णोद्धार में उनका योगदान रहा है।
राजदण्ड का प्रतीक है संसद में रखा जाने वाला ‘सेंगोल’
राजमाता अहिल्याबाई होल्कर (31 मई 1725 – 13 अगस्त 1795) और उनके जैसी कई अन्य को तथाकथित इतिहासकारों ने जो स्थान नहीं दिया, वो कभी मंदिर जाते समय अपने बच्चों को आप खुद भी बता सकते हैं। बाकी जैसे अड़ा बाजार में गाय अड़ गयी थी, वैसे मंदिर जाने में शेखूलरिज्म जो बीच में अड़ता है, सो तो है ही!