स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से परिवारजनों को संबोंधित करते हुए परिवारवाद की बात की। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने देशवासियों को परिवारजन बनाकर उस गरीब और अमीर परिवार के बीच का अंतर समाप्त कर दिया जिसे राजनीति ने हमेशा अवसर के रूप में ही देखा है।
हालांकि राजनीति से इतर पारिवारिक संस्था को संस्कृति और सभ्यता के मूल के रूप में देखा जाना चाहिए। सामाजिक अंतर मिटा कर देश को पारिवारिक संस्था में पिरोना राजनीतिक कदम से अधिक अपनी जड़ों की ओर लौटना या कहें कि औपनिविशिकेता से मुक्ति की ओर बढ़ा हुआ एक कदम है। विश्व में भारत की विरासत पर चर्चा हो तो उसमें पारिवारिक संस्था हमेशा एक योगदान के रूप में उपस्थित है और रहेगी भी। फिर भी परिवार को इसके मूल स्वरूप में देखने की आवश्यकता है। उसी स्वरूप में जिसको औपनिवेशिक काल ने भंग कर दिया है।
औपनिवेशीकरण को जितना श्रेय जाति और वर्ण व्यवस्था पर समाज को बांटने के लिए दिया जाता है उतना ही पारिवारिक संस्था को समाप्त करने के लिए भी दिया जाना चाहिए। मूल सभ्यता को समाप्त करना ही उपनिवेशिकता की नींव रही है। भारतीय सभ्यता की जिजीविषा ही समझिए की अन्य उपनिवेश रहे देशों से इतर आज भी किसी न किसी स्वरूप में हमारी मूल संस्कृति विद्यमान है और उसके पुनरुत्थान के प्रयास किए जा रहे हैं।
विउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया सभ्यता के पुनरुत्थान के बिना संभव नहीं है। इसमें इतिहास और संस्कृति को बढ़ावा देने के साथ ही जरूरी है कि हमारी संस्थाओं को मजबूत किया जाए और उन्हें उनके मूल स्वरूप में स्वीकार किया जाए। पारिवारिक संस्था भी इन्हीं में से एक है। प्रधानमंत्री द्वारा लाल किले से परिवारजनों का आह्वान महज शुरुआत है। इसपर अब वाद-विवाद और चर्चाएं सामने आएंगी। यह भी सामने आएगा कि क्यों भारत आज भी पश्चिमी प्रकृति और मूल्यों पर अपने समाज की रूप-रेखा खींच रहा है।
भारत में पारिवारिक ईकाई के रूप में संयुक्त परिवार समाज का मजबूत आधार रहा है। संयुक्त परिवार की संस्था ने सामाजिक संतुलन के साथ ही सुरक्षा और न्याय को सुनिश्चित किया है। क्या यही कारण नहीं है कि आज जब एकल परिवार की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है तो देश में सामाजिक सुरक्षा में कमी देखी जा रही है? एक सर्वे के मुताबिक वर्ष 2022 में भारतीय घरों में एकल परिवारों की संख्या 50% हो गई जो कि 2008 में 34% के आस-पास थी। एकल परिवार में बढ़ोतरी का असर आर्थिक विकास और संसाधनों की खपत पर भी पड़ता ही है। संभवत औपनिवेशिकवाद के तहत पारिवारिक संस्था को समाप्त करने के पीछे यह भी एक धारणा रही होगी।
दरअसल नए भारत की तस्वीर उस मूल भारत से निकलती है जिसे औपनिवेशीकरण ने चोट पहुँचाई है। भारतीय पारिवारिक ईकाई इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। देशवासियों को परिवार में बांधकर प्रधानमंत्री ने यह जिम्मेदारी सुनिश्चित कर दी है कि विउपनिवेशीकरण की प्रकिया में सभी सहयोग से काम करे। आजादी के अमृतकाल में बात परिवार, न्याय और विश्वनीति की हो तो जरूरी है कि देश अपनी मूल संस्थाओं के लिए जागृति कार्यक्रम चलाना भी आरंभ करे। आखिर औपनिवेशीकरण के लिए सबसे बड़ा दुस्वपन संस्कृति का पुनरुत्थान ही है।
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