अंतत: कांग्रेस अध्यक्ष ने स्वतंत्रता दिवस के राजकीय समारोह से भी किनारा कर लिया। संसद से किनारा कर चुकी कांग्रेस को स्वतंत्रता दिवस से किनारा करते देखना कतई आश्चर्यजनक नहीं था। हाँ, इस बात का अफ़सोस जरूर है कि तिलक, गोखले और गाँधी के नेतृत्व में सालों तक उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टी को तोड़कर कर इंदिरा गाँधी ने जो नया संगठन बनाया था, उसकी आतंरिक शक्ति इतनी कमजोर निकली कि सिर्फ दस सालों के विपक्षी जीवन में ही उसने संसद के बाद अब उस आज़ादी से भी किनारा कर लिया जिसके लिए असंख्य भारतीयों ने अपने प्राण उत्सर्ग किए। इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष द्वारा आज़ादी के राजकीय समारोह का बहिष्कार करना उस युग का सूर्यास्त दिखाता है, जिसको कभी जवाहर लाल नेहरू ने आधी रात के भाषण से शुरू किया था।
१५ अगस्त, १९४७ की उस रात से १५ अगस्त, २०२३ की सुबह तक कांग्रेस की यात्रा और कांग्रेस के साथ भारत की यात्रा अँधेरे में रास्ता तलाशने की ही यात्रा रही और भारत के साथ-साथ आधी रात से सुबह होने तक चलने के लिए कांग्रेस अभिवादन की पात्र है। लेकिन आखिर १५ अगस्त, २०२३ की सुबह ऐसा क्या हुआ को कांग्रेस ने स्वतंत्रता दिवस से किनारा कर लिया? शायद दिन के उजाले में कांग्रेस को भारत की और भारत को कांग्रेस की असली शक्ल पहली बार दिखाई दी और रात के अँधेरे में एक-दूसरे को बिना देखे और पहचाने एक दूसरे से किए गए वादे हकीकत के उजाले में काफूर हो गए। प्रेमियों द्वारा एक दूसरे से किए गए वादे ऐसे ही हकीकत की रौशनी में हवा हो जाते हैं और प्रेमी अपनी अलग-अलग राह पकड़ लेते हैं और रह जाती हैं सिर्फ कहानियां। कांग्रेस के अनुसार भारत अब शायद नया रास्ता ले चुका है और कांग्रेस के नेताओं की मानें तो किसी का कहना है कि भारत की हत्या कर दी गई है और दूसरों का कहना है कि भारत में अब राक्षसों के द्वारा, राक्षसों के लिए और राक्षसों का लोकतंत्र बचा है। अमूमन प्रेम में चोट खाया प्रेमी, प्रेमिका पर चारित्रिक लांछन ही लगाता है ताकि खुद को चरित्रवान दिखा सके लेकिन एकतरफा प्रेम में चोट खाई कांग्रेस अब क्या करेगी, ये प्रश्न राजनीतिक महत्व का भी है और ऐतिहासिक महत्व का भी।
जो प्रश्न भारतीय लोकतंत्र में कांग्रेस खड़ा करना चाहती है, वो प्रश्न आज पूरी दुनिया के लोकतंत्रों के सामने खड़ा है और वो प्रश्न है बदलते भू राजनीतिक वातावरण में लोकतंत्र के स्वरुप का। कांग्रेस की तरह ही दुनिया भर के लोकतंत्रों में विपक्ष में बैठे दल लोकतंत्र के स्वरुप में मनमाफिक बदलाव न आते देख लोकतंत्र को ही नकारने में लगे हैं। आज दुनिया भर में दलीय लोकतंत्र अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। लोकतान्त्रिक संस्थाएं जिस प्रकार के दबाव में दिख रही हैं, मैंने अपने जीवन काल में इतने दबाव में लोकतान्त्रिक संस्थाओं को कभी नहीं देखा। अमेरिका, यूरोप कहीं भी लोकतंत्र सुरक्षित नहीं दिख रहा और मजे की बात ये है कि जिन राजनीतिक लोगों पर लोकतान्त्रिक प्रणाली में जनता का विश्वास बनाए रखने का दायित्व है, वही लोकतान्त्रिक प्रणालियों को नकार रहे हैं और लोकतान्त्रिक संस्थानों के सामने चुनौतियाँ खड़ी कर रहे हैं। विचारधारा से परे, दलीय लोकतंत्र वाले देशों में विपक्ष में बैठे दल जिस प्रकार के प्रश्न लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर खड़े कर रहे हैं, वो लोकतंत्र के अस्तित्व को ही चुनौती देते दिख रहे हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प का आंदोलन हो, पश्चिमी यूरोप की मुख्यभूमि का दक्षिणपंथी विपक्ष हो, ब्रिटेन का उदारवादी विपक्ष हो या भारत में उदारवादी कांग्रेस हो, लोकतान्त्रिक विपक्ष का रवैया पिछले दशक में बहुत असहयोगवादी रहा है। विश्व भर में लोकतान्त्रिक विपक्ष का असहयोगवादी रवैया अभूतपूर्व तेजी से बदलती भू राजनीतिक और तकनीकी परिस्थितियों के अनुरूप लोकतान्त्रिक संस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता को नकारने का रहा है। विपक्षी धड़े लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं में किसी लोकतान्त्रिक स्वर्णयुग की कल्पना (जैसे नेहरू युग में लोकतंत्र की कांग्रेसी कल्पना या डोनाल्ड ट्रम्प की महान अमेरिका की कल्पना) बेच कर या तो यथस्थिति बनाए रखना चाहते हैं या लोकतान्त्रिक विकास को पीछे ले जाना चाहते हैं, जबकि सत्ता पक्ष पर परिवर्तन का भारी जनदबाव है और यही दुनिया भर के लोकतंत्रों में पक्ष और विपक्ष के मध्य उत्पन्न हुए असहयोग का कारण भी है।
भारत में भी कांग्रेस और सहयोगी दल साफ़-साफ़ नहीं कह रहे लेकिन उनका मंतव्य यही है कि लोकतंत्र में अगर वो सत्ता में नहीं है तो वो लोकतंत्र, लोकतंत्र ही नहीं है। अगर इस तर्क को मान लिया जाए तो भारत में लोकतंत्र का मतलब ही समाप्त हो जाएगा और भारत एक देश के तौर पर पार्टी स्टेट में बदल जाएगा। ये वो व्यवस्था है जो इंदिरा गाँधी ने कभी भारत पर आरोपित करने की असफल कोशिश की थी। २०१४ के बाद से ही कांग्रेस पार्टी का रवैया संसदीय कानूनों को संसद की विभिन्न समितियों में भेज कर लटकाए रखने का रहा और सरकार के बहुमत के चलते सफलता न मिलने पर कांग्रेस ने पहले संसद और अब संसदीय लोकतंत्र की शुरुआत के एक प्रतीक ‘स्वतंत्रता दिवस’ को ही नकार दिया है। देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस गणतंत्र दिवस को कब नकारती है। हालाँकि कानूनों को संसद की समितियों में लटकाने की परंपरा पुरानी है और कांग्रेस इस सन्दर्भ में बीजेपी के विपक्षीय दौर का हवाला देती रही है लेकिन कांग्रेस को यह नहीं समझ आ रहा कि मनमोहन सिंह की सरकार में हुए घपले-घोटाले सुधारों को रोकने या नकारने के ही उत्पाद थे जबकि उस समय भी जन दबाव सुधार करने का ही था। अन्ना हज़ारे का आंदोलन सुधारों की इच्छा की ही अभिव्यक्ति थी, जिसे कांग्रेस स्वीकार नहीं करना चाहती। चाहे स्पेक्ट्रम घोटाला रहा हो या कोयला खदानों के आवंटन का घोटाला, इन सबके मूल में बदलती परिस्थितियों के अनुरूप नीतियां बनाने की मनमोहन सिंह सरकार की अनिच्छा ही थी।
दलगत भावना के इतर, भारत की जनता में लोकतान्त्रिक अभिव्यक्ति और लोकतान्त्रिक प्रणाली में सुधार की भावना कितनी बलवती है, इसका पता इसी बात से चल जाता है कि कश्मीर में ३७० हटने के बाद जैसे ही जनता को लगा कि सरकार नियंत्रण में है, वैसे ही स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए भीड़ सड़कों पर उमड़ पड़ी। ये वो कश्मीर है जिसके बहुसंख्यक वर्ग को शेष देश के बहुसंख्यक वर्ग का एक तबका आज कई दशकों से आतंकवादी मानता रहा है। जैसे ही भारतीय राज्य ने कश्मीर में आतंकियों का सफाया किया, वैसे ही कश्मीर के बहुसंख्यक वर्ग ने खुल कर भारतीय राज्य के प्रति अपना दृष्टिकोण दिखा दिया। भारत के बहुसंख्यक वर्ग में बैठे धार्मिक चरमपंथियों को कश्मीर की जनता ने सन्देश दे दिया कि चाहे कश्मीर हो या शेष भारत, चरमपंथी सामान्य जनता के लोकतान्त्रिक उद्गार को तभी रोक सकते हैं जब राज्य अक्षम हो। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि देश शायद पहली बार मणिपुर पर बहस कर रहा है। इसी मणिपुर की जनता को एक दशक पहले तक दिल्ली जैसे शहरों में नस्लीय ताने सुनने पड़ते थे क्योकि भारतीय राज्य अक्षम हाथों में था। तो ये तो मानना ही होगा कि भारतीय राज्य सक्रिय हुआ है और राज्य का नेतृत्व सक्षम हाथों में है। कश्मीर और मणिपुर भारतीय लोकतंत्र के सीमान्त है और इन सीमान्त स्थानों में लोकतान्त्रिक मुख्यधारा में शामिल होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने की इतनी बलवती इच्छा है, और अगर इन सीमांतों में हो रही गतिविधियों को बाकी भारत के लोगों का अभूतपूर्व समर्थन है तो सरकार के लिए और विपक्ष के लिए ये एक चेतावनी है। ये भारत में लोकतंत्र के भौगोलिक विस्तार और भारतीय जनता में लोकतान्त्रिक समझ की गहनता के विस्तार का संकेत है। अगर इन सीमान्त में लोगों को उनकी इच्छा के अनुरूप लोकतान्त्रिक वातावरण नहीं मिला तो मोदी साहब वही गलती दोहराएंगे जो नेहरू साहब ने कश्मीर और पूर्वोत्तर में की थी।
कांग्रेस असहयोगवादी रवैया अपना कर भारतीय लोकतंत्र में सुधारों की आवश्यकता को केवल नकार ही नहीं रही है बल्कि सुधारों को लोकतंत्र पर हमले के रूप में प्रचारित कर रही है। संसदीय प्रणाली में संसद को नकारने वाली राजनीतिक शक्तियां लोकतंत्र की परीक्षा तो ले रही हैं लेकिन उनको यह भी समझना चाहिए कि लोकतंत्र भी उनकी भूमिका देख रहा है।
कांग्रेस का दिल हो सकता है भारत ने तोड़ा हो और हो सकता है कांग्रेस प्रेम में चोट खाए प्रेमी की तरह भारत से बदला लेने का प्रयास कर रही हो लेकिन कांग्रेस को ये नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस का अस्तित्व भारत से है, भारत को अस्तित्व के लिए कांग्रेस की जरूरत नहीं है।
यह भी पढ़ें: औपनिवेशिकता से मुक्ति का आह्वान है ‘परिवारजन’ का संबोधन