“हर तरह की मदद! मैंने उनकी हर तरह से मदद की है। मैं ही वो इंसान हूँ जो उनको यहाँ लेकर आया और मैंने ही उन्हें हर तरह के संसाधन उपलब्ध करवाए।“
आतंकवादियों की मदद में उसका कितना हाथ था? इस सवाल पर यह जवाब था, आतंकवादी अफजल गुरु का। उसी अफजल गुरु का, जिसके समर्थन में देश के ‘युवा’ तख्तियाँ लेकर ‘आजादी’ माँग रहे थे।
13 दिसम्बर, 2001 शुक्रवार का दिन देश के लिए काला दिन था। 21 वर्ष बीत गए हैं और भले ही 21 और बीत जाए लेकिन हम नहीं भूलेंगे। हम नहीं भूलेंगे और न ही हम माफ करेंगे। उन्होंने लोकतंत्र के स्तंभ, हमारी संसद पर हमला कर लोकतंत्र को बहरा करने की कोशिश की। अब किसी भी तरह की माफी की उम्मीद न की जाए।
हालाँकि, आज भी उम्मीद की जाती है। दलीलें भी दी जाती हैं। संसद में उठी चीत्कार और देश को पहुँची चोट को भुलाकर मानवता, न्याय और संवेदना को आगे रखकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाए जाते हैं। आज भी देश में एक वर्ग ऐसा है, जो यह तय नहीं कर पा रहा कि अफजल गुरु को आतंकवादी मानें या नहीं?
संसद पर सुनियोजित हमला हुआ था। पाकिस्तान से जैश-ए-मोहम्मद और कश्मीर में आतंकवादी गाजी बाबा के नेतृत्व में अफजल गुरु ने 5 आतंकवादियों को हर तरह के संसाधन उपलब्ध करवाए थे ताकि वे संसद पर हमला कर सके। हमले में 9 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए थे। संसद पर हमले के साथ उनके वहाँ रुकने की योजना का खुलासा भी अफजल गुरु ने स्वयं किया था। लश्कर और जैश के आतंकी जब संसद प्रवेश कर चुके थे तो उनके पास पूरे संसद भवन ध्वस्त करने की क्षमता रखने वाले विस्फोटक मिले थे और इसका इंतजाम करने में अफजल की अहम भूमिका थी। इसके चलते उसे 9 फरवरी, 2013 को फाँसी पर लटका दिया गया।
यह फैसला कठोर था, संवेदनहीन था, यह बात टीवी डिबेट्स में उठ रही थी। देश के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहा देश का भविष्य मानवता की नई परिभाषा गढ़ इसे अन्याय बता रहा था। “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा है”, “भारत तेरे टुकड़े होंगे”
ये देशद्रोही नारे देश के विश्वविद्यालयों में गूंज रहे थे।
आश्चर्य होता है, देश के जवान जब आतंकवादियों मारते-मारते बलिदान हो रहे थे तो इन्हें मानवता याद नहीं आई और एक आतंकवादी को सजा देने वाले न्याय को इन्होंने कातिल बता दिया। मानवता की उम्मीद हमेशा उसी वर्ग से क्यों की जाती है, जिसे घाव मिला हो? शांति का पाठ पढ़ाने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन हों या देश के ये कथित जागरूक नेता, हमेशा भारत को यही सीख मिलती रही है कि हमें और संवेदनशील होने की आवश्यकता है।
संवेदनशीलता! यह मानवता को जीवित रखने के लिए जरूरी है। न्याय का आधार है। 200 से अधिक लोग संसद में मौजूद थे। उन्हें मारने के लिए 5 आतंकवादी आए थे, जिनकी मदद अफजल गुरु ने की थी। क्या इन्हें मानवता और संवेदनशीलता का कोई भान था? ये उम्मीद अपराधियों की सजा के दौरान ही क्यों की जाती है?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मात्र राष्ट्र की ‘अशांत भावनाओं’ को शांत करने और समाज के विवेक को संतुष्ट करने का जरिया बताया गया और उसे न्याय की जगह सीधा अन्याय बता दिया गया। अफजल गुरु ने अपने बयान में कहा था कि जैश-ए-मोहम्मद वैश्विक स्तर पर आतंकवाद स्थापित करना चाहता है और गाजी बाबा कश्मीर के लिए लड़ता है इसलिए वो उससे प्रभावित था।
यहाँ एक क्षण के लिए दूसरा पक्ष भी देख लेते हैं कि क्या होता अगर अफजल को फांसी न देकर उम्रकैद या अन्य सजा दी जाती? तो सबसे पहले वैश्विक पटल पर देश की कमजोर छवि जन्म ले लेती। जो देश अपने यहाँ की सर्वोच्च संस्था पर हुए हमले को लेकर कार्रवाई नहीं कर सकता उस देश में न्याय की उम्मीद का क्या होता?
क्या यह लश्कर, जैश-ए-मोहम्मद, ISI या अन्य आतंकवादी संगठनों को न्योता देने वाली बात नहीं होती? अफजल गुरु, एक आतंकवादी को न्याय देने के संबंध में तो हमने बात कर ली लेकिन, जिन पुलिसकर्मियों और कर्मचारियों ने संसद की रक्षा करते हुए अपनी जान गंवा दी थी, उनके अधिकार का क्या होता?
सवाल उठाए जा रहे थे, क्या अफजल गुरु को उसके नागरिक अधिकार दिए गए? मात्र पुलिस के बयान के आधार पर ही सजा क्यों सुना दी गई? उसे एक अच्छा वकील क्यों उपलब्ध नहीं करवाया गया।
इन सवालों का जवाब यह है कि जिस लोकतंत्र को घायल करने के लिए हमला किया गया था, उसी लोकतंत्र की विशेषता के चलते एक आतंकवादी को उसकी दलील पेश करने के लिए वकील मिला था। अफजल ने स्वयं पूरी घटना की जानकारी दी थी और स्वीकार किया था कि हमले में उसकी क्या भूमिका रही थी।
आज 21 वर्षों बाद देश जब इस हमले को याद करता है तो वो भयावह मंजर मानो भीतर ही भीतर कुरेदने लगता है। वर्तमान परिस्थितियों और आतंकवादी हमलों में कमी जरूर आई लेकिन इनका पक्ष लेने वालों में नहीं।
फिर भी हम भूलेंगे नहीं और याद रखेंगे बलिदानों को, न्याय को और राष्ट्रवाद को। अगर कोई भूल गया है तो उसे याद दिलाया जाएगा कि आतंकवादी को माफ करना न्याय नहीं है और न ही अन्याय को सहन करना न्याय है। देश को घायल करने वाले को सजा देना संवेदनहीनता नहीं है।
आगे भी इस जीवित राष्ट्र को जब कोई घायल करने की कोशिश करेगा तो राष्ट्रभावना से भरे जेपी यादव और जीतराम जैसे वीर आगे आएंगे और आतंकवादियों को उनके इरादों समेत मिटा दिया जाएगा और देश भावना के विरुद्ध भविष्य में उठे सवाल अब अनुत्तरित ही रहेंगे, क्योंकि वो वास्तविकता में मानवीय संवेदनाओं के विरुद्ध हैं।
अफजल गुरु के चेले बलिदानियों के लिए न्याय क्यों नहीं माँगते?
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