बात सन दो हज़ार पचास की है। ये वो समय था जब युवा विभिन्न वीडियो साइट्स पर डालने के लिये अपने वीडियो बनाते रहते थे ,और फुर्सत मिलते ही फुलकी/पानीपूरी, मोमोज़ का ठेला लगा लेते थे। बाकी अधिकांश काम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से हो जाता था। राज्य के पास केवल पुलिस और न्यायपालिका बचे थे। इसी समय सर्दियों की एक कोहरे वाली सुबह,दो युवा मोटरसाइकिल पर ग्वालियर की सड़कों को नापते हुए चले जा रहे थे।
उन्हें घूरे पर अपना वीडियो बना कर अपलोड करना था। घूरे से उठता हल्का-हल्का धुआँ उन्हें बहुत रोमांचित करता था। नगर निगम की कृपा से वे घूरे के ऊपर खेलते हुए ही बड़े हुए थे। कटी घाटी पर नगर निगम द्वारा बनाया गया स्थायी घूरे का ढेर अब ग्वालियर की मजार कहा जाता था। इस पर किला घूमने जाने वाले देशी-विदेशी पर्यटक मत्था टेकते हुए जाते थे। आज घूरे से धुआँ नहीं निकल रहा था। पर वीडियो तो बनाना ही था। वे वीडियो बनाने ही जा रहे थे कि किसी ने उन्हें बताया कि कटी घाटी से अच्छे घूरे के ढेर तानसेन नगर पर मिलते हैं। तानसेन की मज़ार के बगल में भी घूरे की एक मज़ार बनाई गई है। वहाँ धुआँ भी बहुत अच्छा निकलता है। ये सुनकर वे धुंधलके में ही तानसेन नगर की ओर बढ़ लिये।
रास्ते में फूलबाग पर मप्रपु वाले मामू अपनी खाकी वर्दी में पीले बैरियर लगाए खड़े थे। वही बैरियर जिन पर युगों-युगों से सुभाषित लिखे जा रहे थे। मप्रपु- आपके लिये, आपकी सेवा में। मप्रपु – देशभक्ति, जनसेवा। कभी-कभी अधिक डराने के लिये बैरियर पर लिख दिया जाता था – मप्रपु- आपके साथ ,सदैव। ये पढ़ कर अच्छे-अच्छे ख़लीफ़ाओं को सिहरन हो जाती थी।
पुलिस को जब अधिक डराना होता है तो वो प्यार से बात करती है।
तो जब मामूजान लोगों ने इस कोहरे में तेज गति से आते उन सवारों को देखा तो उन्हें शक़ करना पड़ गया। पुलिस को कई बार न चाहते हुए भी शक़ करना पड़ता है। वरना वे तो बढ़िया आँच ताप रहे थे। एक सितारे वाले बड़े मामू ने ,दो फीती वाले छोटे मामू से कहा – जे लौंडे कितें भाग रहे हैं ,नैक रोक तो इन्हें! बस यहीं से वो कहानी शुरू होती है जिसकी कल्पना किसी पाठक ने नहीं की होगी।
तो उन लड़कों को जबरन बैरियर आगे कर के रोक लिया गया। अब अपने वो धरतीपुत्र, जो साक्षात घूरे पर पले-बढ़े थे ,मामू लोगों से भिड़ गए। बात तूतू-मैंमैं से शुरू हुई और हाथापाई तक पहुँच गई। उन्हें पकड़ कर थाने ले आया गया।
अब पाठक तो जानते हैं कि ये कहानी सन दो हज़ार पचास की है। उस समय तक पुलिस की इतनी पिटाई हो चुकी थी कि पुलिस संरक्षण अधिनियम लागू करना पड़ा था। तो उन लड़कों के ख़िलाफ़ पीपीए (पुलिस प्रोटेक्शन एक्ट) की धारा आठ- पुलिस कर्मी की तोंद पर घूँसा मारना, धारा ग्यारह-पुलिस कर्मी को गिराकर उसकी छाती पर बैठ जाना, धारा बाइस- पुलिस कर्मी को नेताजी से धमकी दिलवाना, धारा उनतीस- पुलिस कर्मी को दौड़ा-दौड़ा कर हंफ़ा देना , धारा बियासी-थाने में नँगा नाच करना के तहत मुक़दमा दर्ज कर लिया गया। अब बात ये है कि जो कहानी वहाँ से शुरू होनी थी ,वो दरअसल यहाँ से शुरू होगी।
तो वे लड़के चिल्लू जाति के थे। उस वक़्त चिल्लू जात वालों का बड़ा जलवा था। कुल वोटरों में आठ परसेंट चिल्लू जात के थे। चिल्लू जात वालों की माँग पर,चिल्लू जात के लिये भी सरकार ने प्रोटेक्शन एक्ट बनाया था – चिल्लू जात संरक्षण अधिनियम(सीसीपीए)। जिले के पुलिस कप्तान भी चिल्लू जात से थे, तो वो भड़क गये कि हमारी बिरादरी के लौंडो से गुस्ताख़ी! उन्होंने उन पुलिस वालों पर भी उल्टा मुक़दमा दर्ज करवा दिया। तो पाठकों अब आता है कहानी में ट्विस्ट।
उन पुलिस वालों में सहायक दरोगा जी, जिनकी तोंद पर घूँसा मारा गया था, टेंटी बिरादरी से थे। और दो फीती वाले हवलदार साब ,जिन्हें दौड़ा-दौड़ा कर हंफाया गया था ,लभेड़े बिरादरी से। चूंकि एक विधानसभा में टेंटी जाति का प्रभुत्व था तो उस साल के विधानसभा उपचुनाव जीतने के लिये सरकार ने टेंटी जात संरक्षण अधिनियम (टीसीपीए) लागू कर दिया था। और दो लोकसभा में लभेड़े जात का बहुमत था तो एलसीपीए भी लागू था। उन लौंडों पर टीसीपीए और एलसीपीए की धाराएं भी लगा दी गईं।
अब आप पाठक तो होशियार हैं ,जानते होंगे कि ये सारे कानून ग़ैर जमानती थे। उन पुलिस वालों ने उन लौंडो को गिरफ़्तार कर लिया। और बाकी पुलिस वालों ने ,उन पुलिस वालों को। अब उन्हें मेडिकल कराने के लिये अस्पताल ले जाया गया। बस! अब होगा कहानी में धमाका।
उन दिनों डॉक्टर-मरीज के झगड़े इतने बढ़ गये थे कि सरकारी डॉक्टर मरीज को सीधे नहीं देखते थे। एक कमरे में एक रोबोट होता था और एक बड़ी काँच की दीवार के पार बैठे डॉक्टर उसे संचालित कर मरीज की जाँच करते थे। इस व्यवस्था से मरीजों और डॉक्टरों के झगड़ों में काफ़ी कमी आई थी। उन लौंडो को उस कमरे में बिठा दिया गया।
एक चार पहिये वाला रोबोट चलता हुआ आया, जिसे काँच के पार बैठे जूनियर डॉक्टर चला रहे थे, और उन लड़कों की जाँच करने लगा। लड़के उस जाँच से संतुष्ट नहीं थे। रोबोट मुँदी हुई चोट लिख रहा था, लौंडे कह रहे थे- ‘धाद्दार हथियार से मारा है, लिख रोबोट,लिख!’ फिर उन लौंडो ने काँच के पार बैठे डॉक्टरों से कहा कि जे तुम्हारा रोबोट पुलिस वालन से मिल गया है। अब डॉक्टर तो डॉक्टर ठहरे, वो भी जूनियर। उन्होंने कहा -चुपचाप बैठे रहो। बस! ये कहना था और कहानी में क्रांति हो गई।
उन लौंडो ने ज़ोर की एक लात उस रोबोट में मारी,और काँच के पल्ली तरफ बैठे डॉक्टरों को घूर कर देखा। फिर उस रोबोट के गाल पर एक ज़ोर का रैहपट धर दिया और फिर से डॉक्टरों को घूर कर देखा। फिर उन्होंने डॉक्टरों की आँखों में अपनी आँखे स्थायी रूप से डाल, रोबोट की मुंडी पकड़ कर गोल-गोल घुमा दी। उसके कानों से चाऊ-माऊ खेल डाला। अब वे जूनियर डॉक्टर ,जो पैदा ही मारा-कुट्टी करने के लिये होते हैं ,वे बेचारे कब तक धैर्य रखते। एक-एक चोट उनके दिल पर पड़ रही थी। उनमें से एक बोला-‘ सर्जिकल रोबोट संरक्षण अधिनियम की कब से माँग कर रहे हैं ,पर सरकार सुनती ही नहीं।’
‘हमला रोबोट पर नहीं, हम पर हुआ है।’ दूसरा जोशांदा पीने वाला डॉक्टर बोला। उसका एप्रन खुला हुआ था। एक भी बटन नहीं लगा था।
अगर डॉक्टर का एप्रन खुला हो तो सावधान हो जाना चाहिये। ऐसा डॉक्टर इलाज के नहीं, नेतागिरी के मूड में रहता है।
वह अपने एप्रिन को लहराता हुआ ‘यलगार हो’ बोल कर भागा।उसके पीछे बाकी डॉक्टर ‘मारो सालों को’ चिल्लाते हुए दौड़े।
कमरे में पहुँच कर उन्होंने सबसे पहले रोबोट के सिर पर हाथ फेर कर पूछा- बेटा, कहीं चोट तो नहीं लगी ? ये सुनकर रोबोट की आँखों में आँसू आ गए। जिन्हें देख कर डॉक्टरों की आँखों में खून उतर आया। उसके बाद तो डॉक्टरों ने उन लौंडो की अच्छे से काकड़ आरती उतारी।
अब पाठकों एक बात सदा याद रखिये- जिस प्रकार मेघों के बाद वृष्टि आती है, मोह के बाद माया आती है, रजनी के बाद ऊषा आती है। उसी प्रकार जूनियर डॉक्टरों की मार-कुटाई के बाद उनकी हड़ताल आती है।
तो जूनियर डॉक्टर हड़ताल पर बैठ गए। सबसे आगे प्लास्टर और पट्टी बांधे रोबोट बैठा। वो भी डॉक्टरों के साथ नारे लगा रहा था कि सर्जिकल रोबोट संरक्षण अधिनियम लागू करो। अब डॉक्टरों के लिये तो संरक्षण अधिनियम बहुत पहले से लागू था। तो उन लड़कों पर एफआईआर हो गई। पर यहाँ एक ख़ास बात और थी।
उन डॉक्टरों में से एक लम्पू जाति का प्रदेश सहसंयोजक था। दो डॉक्टर छुछू जाति के थे। इन दोनों जातियों के लिये भी संरक्षण अधिनियम लागू था। तो उन लौंडो पर ये धाराएं अलग से लगा दी गईं।
अब आपको विदित है कि लौंडे चिल्लू बिरादरी के थे। उन्होंने एसपी को फोन लगाया कि जीजाजी डॉक्टन्न ने हमें बहुत कूटा है। तो एसपी साब ने डॉक्टरों के ख़िलाफ़ सीसीपीए में मुक़दमा दर्ज करवा दिया। यहाँ एक बात और भी थी जिसे लेखक बताना भूल गया ।
दरअसल दो हज़ार सैतालीस में स्वास्थ्य मंत्री का लड़का सरकारी अस्पताल में दिखाने गया। वहाँ उसका जूनियर डॉक्टरों से मुँहवाद हो गया। आख़िर स्वास्थ्य मंत्री का लड़का था भाई। उसने जूनियर डॉक्टरों से कुछ बोल-बाल दिया, उन्हें हड़का दिया। उसके बाद जूनियर डॉक्टरों ने हॉकी-सरियों से उसका महामस्तकाभिषेक कर डाला। यह बात जब स्वास्थ्य मंत्री तक पहुँची तो वो पागल से हो कर मुख्यमंत्री के दरबार में पहुँच गये। मुख्यमंत्री ने तत्काल शासकीय रुग्णालय मरीज संरक्षण अधिनियम (जीएचपीपीए) लागू कर दिया। जिसे शॉर्ट में ‘घप्पा’ कहते थे। तो उन डॉक्टर्स पर घप्पा की धाराएं भी लगा दी गईं।
अब पुलिस ने उन पुलिस वालों, उन लौंडो और उन डॉक्टरों को ,सबको गिरफ़्तार कर लिया। छोटे से लॉकअप में धकम्म-धुक्की मच गई। अगले दिन उन्हें कोर्ट में पेश किया गया। अब ये है कहानी का असली पड़ाव।
इधर जूनियर डॉक्टर ,उधर वक़ील। दोनों ही मार्शल रेस। उस वक़्त सरकार ने इंजीनियरिंग के छात्रों, कांवड़ियों , मोहर्रम में छाती पीटने वालों, ईद पर स्टंट करने वालों, जूनियर डॉक्टरों ,वक़ीलों ,यूनिवर्सिटी हॉस्टल के लौंडों को मार्शल रेस घोषित कर दिया था। तो पाठकों जब दो मार्शल रेस टकराती हैं तो उन्हें किसी वजह की ज़रूरत नहीं होती। वे बस भिड़ जाती हैं। एक वक़ील साब से एक जूनियर डॉक्टर का कंधा रगड़ गया। मित्रों एक बार को शेर की मांद में शेर से भिड़ जाना ,पर कचहरी में वकील से नहीं। वक़ील साहब का कंधा भिड़ते ही पूरे कोर्ट में लैलै-दैदै मच गई। वकील लोग दैदै करें और डॉक्टर लैलै। डॉक्टरों के साथ वे लौंडे और पुलिस वाले भी निःशुल्क पिटे। अब वकील संरक्षण अधिनियम तो पहले से ही लागू था। तो उन सब पर मुक़दमे दर्ज हो गए।
उधर उन लौंडो ने फिर एसपी साब को फोन लगाया कि जीजाजी इस बार वकीलन ने हमें घसीट-घसीट कै मारा । हमें वहीं सुपुद्दे-खाक कर दिया। तो कप्तान साहब के आदेश पर वकीलों पर भी सीसीपीए, पीपीए, टीसीपीए, एलसीपीए, आदि के तहत मुक़दमे दर्ज हो गए। यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि वक़ील तो अपने कोर्ट में थे ,लेकिन डॉक्टर अपने क्लीनिक से बाहर थे। इसलिये उन्हें केवल अपने लम्पू और छुछू जाति संरक्षण अधिनियम का ही सहारा मिला। जैसे-तैसे सबको कोर्टरूम ले जाया गया। ये सब होते-होते शाम हो गई।
मामला वकीलों का था तो जज साब टालमटोल करने लगे। उन्होंने कहा कि देश मे तीन सौ करोड़ मुक़दमे लंबित हैं। इतनी जल्दी नहीं सुन सकता। वैसे भी समय ख़त्म हो रहा है। पर वक़ील अड़ गये। फ़िर जज साब को एक विचार सूझा। उन्होंने मुक़दमा एआई जज को भेज दिया। उस समय दो तरह के जज होते थे। एक- ह्यूमन जज। दूसरे – आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जज।
तो एआई जज ने ,जो एक कम्प्यूटर था, घटनाओं से जुड़े सभी तथ्य ,सीसीटीवी फुटेज, सभी अभियुक्तों के इतिहास का अध्ययन किया। और सभी को बरी करते हुए सफाई कर्मी दीनू को दोषी पाया।
अपने निर्णय में जज ने लिखा कि दीनू ने सफ़ाई कर्मियों की निर्धारित प्रक्रिया (एसओपी) का पालन नहीं किया। सीसीटीवी फ़ुटेज से स्पष्ट है कि उसने कटीघाटी, ग्वालियर की मज़ार पर घूरा एकत्र तो किया, परन्तु उसमें आग नहीं लगाई। जो एक गम्भीर लापरवाही है। यदि वह नियमानुसार घूरे में आग लगा देता तो यह घटना ही नहीं घटती। अच्छी आग की तलाश में न बच्चे फूलबाग जाते ,न पुलिस वालों से, डॉक्टरों से भिड़ते, न वकीलों से झगड़ा होता। जज साब ने दीनू को कर्तव्य में लापरवाही के लिये बर्खास्त कर दिया। अब अपना दीनू था चूँचूँ समाज से………
नोट- इन समाजों के नाम काल्पनिक हैं। यदि किसी वास्तविक समाज से कोई नाम मिल जाय तो (मेरे लिये दुःखद) संयोग होगा।