अंतः अस्ति प्रारंभः।।
अर्थात, अंत ही आरंभ है। किसी भी अंत की शुरुआत उसके आरंभ से ही तय हो जाती है। ऐसा भारतीय शास्त्रों में वर्णित है पर इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमें पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से मिलता है। अपने अंत की कहानी पाकिस्तान ने विश्व पटल पर स्वयं के उदय के साथ ही लिख दी थी।
पाकिस्तान का जन्म धर्म के आधार पर हुआ। एक ऐसा देश जिसके जन्म के परिणामस्वरूप भारतवर्ष का विभाजन हुआ। हालाँकि, संघीय संसदीय प्रणाली के तहत वहाँ सरकार थी, इस्लामी गणराज्य का प्रमुख राष्ट्रपति भी था पर देश की वास्तविक शक्ति हमेशा पाकिस्तानी सेना के पास रही। यही कारण था कि एक देश के रूप में पाकिस्तान मात्र एक लोकतांत्रिक देश बनने का अभिनय ही करता रहा, लोकतंत्र कभी नहीं बन सका।
लोकतांत्रिक सरकार के लिए जनता को समुचित अधिकार, विविधताओं की स्वीकार्यता और जीने की स्वतंत्रता का अधिकार आवश्यक है और इनमें कट्टरता के लिए स्थान बहुत कम होता है। इसलिए वर्ष 1947 में भारतवर्ष का विभाजन हुआ तो पाकिस्तान बना जो मूलतः पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी बंगाल के नाम से जाना गया। दोनों और की आबादी का धर्म अधिकतर इस्लाम ही था लेकिन, भाषा और सांस्कृतिक दूरियां इन जमीनी मानकों से ज्यादा लंबी थी।
शायद यही कारण था कि पश्चिमी पाकिस्तान के लिए पूर्वी पाकिस्तान बंगालियों और हिंदुओं का गढ़ था। इसलिए सांस्कृतिक विविधता को सम्मान देने के बजाए नस्लवादी नैरेटिव चलाकर पूर्वी बंगाल में ‘शुद्धिकरण’ तक की बातें उठती थीं। जब देश, अपने ही नागरिकों के एक वर्ग को पराया या ‘निचले दर्जे’ का मानने लगे तो उस देश के टूटने की शुरुआत यहीं से क्यों न होगी?
खैर, बांग्ला आबादी अपनी भाषाई अधिकार माँग रही थी। वर्ष 1948 से ही बांग्ला भाषा की माँग पूर्वी पाकिस्तान में उठ रही थी लेकिन, मोहम्मद अली जिन्ना ने साफ कर दिया था कि निजी स्तर पर भले ही वो बांग्ला का इस्तेमाल करे, आधिकारिक भाषा तो उर्दू ही रहेगी। ये दमन की शुरुआत थी। कोई देश विभाजन से बच सके इसके लिए आवश्यक है कि वो विविधताओं को अपनाकर राष्ट्रीय लक्ष्यों के साथ लेकर चले पर पाकिस्तान ने दमन के जरिए स्वीकृति का रास्ता चुना था।
वर्ष 1955 में पाकिस्तान में बैठे हुक्मरानों ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया और इसी के साथ यहाँ शुरुआत हुई दमन और अत्याचारों की। एक दशक तक पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को अपनी कुंठा का शिकार बनाया इसके जरिए वो भारत को निशाना बना रहा था। पाकिस्तान का राष्ट्रपति याह्या खाँ द्वारा लोकप्रिय आवामी लीग और उसके नेताओं को प्रताड़ित किया जा रहा था।
यहाँ तक कि वर्ष 1970 में पाकिस्तान में हुए चुनावों में बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की पार्टी के पास सरकार बनाने के लिए सटीक आँकड़े उपलब्ध थे लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान के नेतृत्व और सेना को यह मंजूर नहीं था। मुजीब को चुनाव के नाम पर धोखा मिला तो पूर्वी पाकिस्तान में लंबे समय से संघर्षरत जनता में विद्रोह उत्पन्न हो गया।
यह पाकिस्तानी नेतृत्व की कमी ही थी कि इस विद्रोह में बातचीत या विवाद का हल निकालने के लिए कोई रणनीति नहीं बनाई गई थी। मानवता और किसी शांतिदूत का भी यहाँ उपयोग नहीं किया गया था बल्कि टिक्का खान के नेतृत्व में सेना को विद्रोह की आवाज बंद करने के लिए भेज दिया गया था। टिक्का खान ने ही पूर्वी पाकिस्तान में ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ चलाया। ये मात्र ऑपरेशन नहीं बल्कि रक्तरंजित बदला था, पूर्वी पाकिस्तान के साथ। मात्र 9 माह के अंतराल में टिक्का खान की सेना ने सारी हदें पार कर दी थीं।
विद्रोह का दमन करने के नाम पर 30 लाख से अधिक बांग्ला भाषियों की हत्या की गई। एक लाख से अधिक महिलाओं और युवतियों के साथ बलात्कार किया गया। एक करोड़ से अधिक बांग्लादेशी अपने देश से भागकर भारत में शरण लेने को मजबूर हो गए। रिफ्यूजी कैंप भी पाकिस्तानी सेना के अपराधों से नहीं बच सके।
तैमूर लंग, चंगेज खान यहाँ तक की नाजियों के दमन की कहानी तो सभी जानते हैं लेकिन, इन 9 माह में टिक्का खान ने इन सबको भी शर्मसार कर दिया था। इस बर्बरता के लिए ही टिक्का खान को ‘बूचर ऑफ बांग्लादेश’ यानी ‘बांग्लादेश का कसाई’ भी कहा जाता है। मानवता और शांति के इस मखौल पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और शांति के प्रचारक मूक दर्शक बन कर बैठे थे।
हाल ही में, यूएनजीसी की बैठक के दौरान पाकिस्तान के वर्तमान विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने एक बार फिर कश्मीर राग अलाप कर मानवता और शांति की दलीलें दी तो पता चला की वो बहुत ही जल्दी इतिहास और उसमें हुए बर्बरता को भुला चुके हैं। कारण शायद यह है कि एक आम पाकिस्तानी के लिए आज भी इतिहास अलभ्य वस्तु जैसी है। आज भी पाकिस्तान में बांग्लादेश के उदय को ‘भारत की साजिश’ बताया जाता है।
लेखिका अनम जकारिया का कहना हैं; “बांग्लादेश के साथ संबंध सुधारने के लिए सर्वप्रथम हमें अपनी अपराधों को स्वीकार करना होगा।” उनका कहना है कि “बार-बार माफ़ी की तो बात की जाती है लेकिन माफ़ी का असली उद्देश्य गलतियों को स्वीकार करना है और पाकिस्तान तो जो हुआ है उसे स्वीकार ही नहीं करता है और यही हमारी ग़लती और कमी है. ये घाव अभी भरे नहीं हैं.”
भारत, जिस पर ये बांग्लादेश को अलग करने की ‘साजिश’ का आरोप था, ने कभी भी नए राष्ट्र की संप्रभुता में दखल नहीं दिया बल्कि, स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर उनके नेताओं को नेतृत्व करने के लिए स्वतंत्र कर दिया। भारत के पास 93,000 सैनिक युद्धबंदियों के रूप में थे पर भारत ने न केवल उन्हें ठीक से रखा बल्कि उन्हें पाकिस्तान को सौंप भी दिया। बिलावल भुट्टो जरदारी और पाकिस्तान इसे याद रखें कि भारत ने मानवता की मिसाल पेश करते हुए उन्हें मुक्त कर दिया था।
हालाँकि, ऐसी कोई पहल पाकिस्तान की ओर से हुई हो, ऐसा कुछ याद नहीं आता है। युद्ध विभीषिका के दौरान भारत के 59 जवानों को पाकिस्तानी सेना ने बंदी बनाया था लेकिन युद्ध के बाद उनकी उपस्थिति से साफ इंकार कर दिया गया। ये जवान कभी भी भारत नहीं लौटे। भारत से अलग होने के बाद भी पाकिस्तान का विभाजन हुआ और बांग्लादेश बना, ये उसकी नीतियों का परिणाम था वरना इस्लाम बहुल देश में कौन सा ‘हिंदू’ या ‘उपनिवेशक’ फूट डालने गया था?
वर्तमान में भारत विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अपनी रणनीतियों और विदेश नीति से भू-राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बांग्लादेश की आर्थिक स्थिति पाकिस्तान से कई बेहतर नजर आती है। आज 51 वर्षों के बाद जब भी विजय दिवस मनाया जाता है तो एक ही आवाज आती है कि पाकिस्तान को बांग्लादेश से माफी मांगनी चाहिए। हालाँकि, इन वर्षों में कोई माफी आई नहीं है।
कश्मीर में शांति और मानवता के नाम का नैरेटिव चलाने वाले पाकिस्तान को आतंकवाद, सीमा पार अशांति फैलाने और 70 के दशक के उस ‘नरसंहार’ के अपराधों को स्वीकार करने की जरूरत है। क्योंकि जब तक अपराध स्वीकार नहीं होंगे तब तक उनमें सुधार की कोई गुंजाइश भी नहीं है। यही कारण है कि एक बार फिर, आज पाकिस्तान के अंदर बलूचिस्तान वासियों पर दमन किया जा रहा है पर चूंकि इतिहास से सीखने के लिए दिल और दिमाग खुला रखना होता है इसलिए पाकिस्तान इतिहास से कुछ सीखेगा, इसकी संभावना न के बराबर है।