एक समय था जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कश्मीर के मुद्दे पर सोवियत से ले कर अमेरिका और ब्रिटेन के पास भागते फिरते थे। तब उन्हें चयनीज़ मीडिया “उपनिवेशवाद का दौड़ता कुत्ता” कहता था। एक कम्युनिस्ट राष्ट्र की ओर से भारतीय नेतृत्व के लिए यह बेहद शर्मिंदगी भरा बयान था, लेकिन चीन ऐसे मुहावरों के प्रयोग ऑस्ट्रेलिया एवं अन्य देशों के लिए भी समय-समय पर करता आया है।
किंतु आज हालात कुछ अलग हैं। आज तवांग में हुई झड़प के बाद चायनीज़ मीडिया को सफ़ाई देनी पड़ रही है कि उसके सैनिक भारतीय सेना से पिटने के बाद शांत हो गये हैं और अब स्थिति नियंत्रण में है। अमेरिका भी ज़बरदस्ती सबसे पहले अपना बयान जारी कर कहता है कि हम भारत के साथ हैं।
‘आर्किटेक्ट ऑफ मॉडर्न’ इंडिया कहे जाने वाले नेहरू ने भारत के नक़्शे की जगह जगह पर ऐसा आर्किटेक्ट दुरुस्त किया कि इसके नतीजे हम समय समय पर देखते ही रहते हैं। चायनीज़ मीडिया नेहरू को दौड़ता कुत्ता उस समय लिख रही थी जब विश्व शांति का मसीहा बनने के लिए नेहरू कम्युनिस्ट राज्य के ‘माओ-चाओ व्हाट्सएप ग्रुप’ में ऐड होने के लिए मरे जा रहे थे।
अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में बीते 9 दिसंबर को भारतीय सैनिकों और चीनी सैनिकों की झड़प कि खबर सामने आई। इसके बाद से कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किए जा रहे हैं जिनमें भारतीय सेना को चायनीज़ सैनिकों को तसल्ली से पीटकर वापस भगाते हुए देखा जा सकता है।
ये वीडियो कब और कहाँ के हैं इस पर कोई भी स्पष्ट जानकारी सामने नहीं आई हैं लेकिन बताया ये जा रहा है कि ये वीडियो एकदम ताज़ा हैं और भारतीय सैनिक क़रीब चार सौ से पाँच सौ की तादाद में आए चायनीज़ सैनिकों को पीट रहे हैं। तवांग में आजकल जो झड़प सामने आई है, उसमें भी क़रीब इतने ही चायनीज़ सैनिक बताए जा रहे हैं। चीनी सैनिकों पर पंचायती मार पड़ने के बाद चीन के राष्ट्रपति ने भी कहा है कि सब कुछ सामान्य है।
तवांग वही जगह है जहां पर चीन के साथ 1962 का युद्ध शुरू हुआ था। यहीं पर नेहरू जी, जिन्हें कि नेहरूवादी साहित्यकार ‘मॉडर्न इंडिया के शिल्पी’ भी कहते हैं, उनकी फॉरवर्ड पॉलिसी का भी ज़िक्र हमें मिलता है जो सिर्फ़ बैकवर्ड पॉलिसी बनकर रह गई थी। ये उसी दौर की बात है जब नेहरू के ‘पंचशील’ और ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे भारत की हार के रूप में सामने आए।
चीन और भारत के बीच की सीमा को तीन भागों में बांटा गया है- लद्दाख की तरफ़ पश्चिमी सेक्टर, तिब्बत से जुड़ा हुआ हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की सीमा मध्य का हिस्सा है और पूर्वी छोर पर अरुणाचल प्रदेश से जुड़ी सीमा आती है।
अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत क्यों कहता है कम्युनिस्ट राष्ट्र
चीन अरुणाचल प्रदेश के इस हिस्से को ले कर 1947 से ही बेचैन रहा है। यही वजह है कि वो अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताता है। हालाँकि इतिहास में ऐसी कोई घटना या किस्सा नहीं है जो यह साबित कर सके कि अरुणाचल प्रदेश, तिब्बत या फिर चीन का हिस्सा है। लेकिन इतिहास में तिब्बत भारत का हिस्सा है इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। जैसे- वेदों में तिब्बत को त्रिविष्टप नाम दिया गया है।
तवांग गदेन नामग्याल ल्हात्से (तवांग मठ) दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तिब्बती बौद्ध मठ है और ये अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में स्थित है। इस मठ की स्थापना 1680-81 में 5वें दलाई लामा की इच्छा पूरा करने के लिए की गई थी। चीन इस मठ को सबूत के तौर पर पेश करते हुए कहता है कि यह जिला भी कभी तिब्बत का हिस्सा था।
इस इलाक़े पर अपने दावे को बल देने के लिए चीन ने तिब्बत में ल्हासा और तवांग मठ के बीच किसी प्राचीन संबंधों का हवाला दिया है। इसके अलावा, जब दलाई लामा 1959 में तिब्बत से भारत आए थे, तब उन्होंने तवांग के रास्ते ही भारत में प्रवेश किया और कुछ समय के लिए मठ में रहे। यह कम्युनिस्ट राष्ट्र चीन की चिढ़ का भी एक कारण है।
यांगत्से के लिए क्यों उतावला है चीन
इसके अलावा, चीन हमेशा से अपने और भारत के बीच अरुणाचल प्रदेश को तनाव का कारण बनाता आया है और जिस जगह के लिए चीन की ये सारी कोशिश है उसका नाम है यांगत्से! यांगत्से वह जगह है जहां से चीन पूरे तिब्बत पर नजर रख सकता है साथ ही उसे LAC की जासूसी करने का भी मौका मिल जाएगा। तवांग भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में एक सामरिक प्रवेश प्रदान करता है और तिब्बत और ब्रह्मपुत्र घाटी के बीच गलियारे में एक महत्वपूर्ण बिंदु है।
कुछ भूराजनीतिज्ञ यह भी बता रहे हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था इस समय एकदम चायनीज़ हो रखी है और यही वजह है कि वह इस समय बेहद मुश्किल दौर से गुजर रहा है। जीरो कोविड नीति के सख्त नियमों के तहत जनता पहले ही जिनपिंग के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर चुकी है। जिनपिंग का पूरा ध्यान अभी सत्ता में अपना भभका साबित करने पर है और इन्हीं कुछ कारणों से वह देश की मुश्किलों से ध्यान हटाने की कोशिशों में लगा हुआ है। इसके लिए भारत के साथ नोकझोंक से बेहतर और क्या हो सकता है।
तो समय-समय पर जो ये झड़प कि खबरें सामने आती रहती हैं इस सब के मूल में क्या है? वो कौन लोग हैं जो चीन द्वारा ऐसी किसी भी घटना पर मोदी सरकार से कठिन सवाल पूछते हैं और ख़ुशी ख़ुशी बस इस ये झूठ फैलाने को मरे जा रहे होते हैं कि चीन हमारी सीमा में घुस गया है।
चायनीज सैनिकों की इस ताजा पिटाई के बाद केंद्रीय गृह मंत्री ने कांग्रेस के सवालों के जवाब में कहा है कि कांग्रेस की वजह से ही हजारों किलोमीटर हमारी जमीन चीन की हो गई है। कांग्रेस की ही वजह से संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता हमें नहीं मिल पाई। जनता सब जानती है। 2005 से 2007 के बीच राजीव गांधी फाउंडेशन के जरिए कांग्रेस पार्टी ने चीन से 1 करोड़ 35 लाख रुपए चंदा लिए हैं।’
कांग्रेस अक्सर ही चीन से मिलने वाली फ़ंडिंग को ले कर चर्चा में रहती है, ये और बात है कि नेहरू के नामक में डूबे मीडियाकार इन पर बात नहीं करते। तवांग में ताज झड़प के बाद BJP ने राजीव गांधी फाउंडेशन का धागा खोलते हुए याद दिलाया है कि साल 2005 से 2007 के बीच राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से 1 करोड़ 35 लाख रुपए चंदा में मिले थे। RGF फांउडेशन की वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर यह दावा किया गया है। 2005-06 की वार्षिक रिपोर्ट में फाउंडेशन को डोनेशन देने वालों की लिस्ट में चीन का भी नाम है।
साल 2006 में चीन की सरकार द्वारा राजीव गाँधी फाउंडेशन में 10 लाख रूपए की वित्तीय मदद की गई थी। चीनी सरकार ने वर्ष 2006 में ‘राजीव गाँधी फाउंडेशन’ को ‘वित्तीय सहायता’ के लिए 10 लाख रुपए दान दिए थे। चीनी दूतावास की वेबसाइट पर मौजूद एक दस्तावेज़ के अनुसार, भारत में तत्कालीन चीनी राजदूत सुन युक्सी (Sun Yuxi) ने राजीव गाँधी फाउंडेशन को 10 लाख रुपए दान दिए थे। साल 2017 में तो डोकलाम विवाद के दौरान जब सीमा पर भारतीय सेना और चीन की सेना आमने-सामने थीं, तब राहुल गाँधी चीन की सरकार के साथ सीक्रेट लंच कर रहे थे।
ऐसे में हुआ ये कि UPA सरकार का जब मन हुआ प्रधानमंत्री रिलीफ फंड के अकाउंट से राजीव गांधी फाउंडेशन के अकाउंट में पैसा ट्रांसफर किया। भाजपा ने इस आरोप का आधार RGF की 2005-06 और 2007-08 की वार्षिक रिपोर्ट को बनाया है। इन दोनों ही रिपोर्ट में डोनेशन देने वालों की लिस्ट में PM रिलीफ फंड का पैसा शामिल है।
10 साल पहले राजीव गांधी फाउंडेशन की फंडिंग को लेकर पहली बार हुआ था। दरअसल इस्लामी भगौड़े कट्टरपंथी जाकिर नाइक की इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन ने 2011 में राजीव गांधी फाउंडेशन को 50 लाख रुपए दिए थे।
अब इसी साल 2 महीने पहले ही मोदी सरकार ने राजीव गांधी फाउंडेशन का लाइसेंस रद्द किया है। साल 2020 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राजीव गांधी फाउंडेशन, राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट और इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट की जांच के आदेश दिए थे। इसी जांच के आधार पर अक्टूबर 2022 में दो संस्थाओं के लाइसेंस रद्द किए गये।
पिछले तीन साल में राजीव गांधी फाउंडेशन को मिले पैसे का हिसाब कुछ इस तरह से है – साल 2019 में इन्हें 9.08 करोड़ का डोनेशन मिला, 2020 में 9.03 cr का और 2021 में 7.65 cr का डोनेशन।
अरुणाचल प्रदेश के तवांग में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई झड़प पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने कहा है कि भारत उसका महत्वपूर्ण कूटनीतिक साझेदार है और वह सीमा पर किसी भी तरह के हमले या झड़प की निंदा करता है। व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव कैरीन जीन पियरे ने कहा कि ‘अमेरिका स्थिति की बारीक़ी से निगरानी कर रहा है और हम दोनों पक्षों को विवादित सीमाओं पर चर्चा करने के लिए मौजूदा द्विपक्षीय चैनलों का इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। अमेरिका ने मध्यस्थता तक की पेशकश की है।
नेहरू जी की फॉरवर्ड पालिसी
चलते चलते थोड़ी सी बात तवांग में नेहरू जी की फॉरवर्ड पालिसी पर भी कर लेते हैं – साल 1959 के बाद भारत और चीन के सैनिक लगातार एक-दुसरे से ‘नो मैन्स लैंड’ में उलझते रहे और जो जहाँ पहुँचता वो अपने झंडे गाड़ कर वहाँ चौकियाँ बनाता रहा। इस बीच चीनी प्रीमियर चाऊ एन लाई भारत आए थे, उनके बिना किसी निष्कर्ष चीन लौटने के बाद नेहरू ने नवंबर, 1961 में फॉरवर्ड पॉलिसी सामने रखी।
जवाहरलाल नेहरू ने ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ अपनाई, जिसमें कहा गया कि भारत को एक-एक इंच चीन की ओर बढ़ना चाहिए और इसके लिए विश्व शांति के कबूतरबाज़ मसीहा ने हथियारों की आवश्यकता नहीं समझी। सरदार पटेल की चेतावनी के बावजूद नेहरू जब हिंदी- चीनी भाई-भाई का राग अलापते हुए चीनी नेताओं के साथ दोस्ती लगाने की कोशिश कर रहे थे, उस वक्त चीन चुपचाप मैकमोहन लाइन के दूसरी तरफ भारतीय इलाकों पर कब्जा करने की साजिश रच रहा था।
नेहरू की ये फॉरवर्ड पॉलिसी ‘बैकवर्ड पॉलिसी’ बन गई। चीनी सेना लगातार भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करती चली गई और हम लगातार पीछे हटते चले गए। विश्व शांति का मसीहा बनने की चाहत में नेहरू ये मानकर चल रहे थे कि भारत को अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने की कोई जरूरत ही नहीं है।
जब नेहरू नींद से जागे
कुछ माह में ही मानो नेहरू नींद से जागे और संसद में प्रस्ताव रखते हुए चीन के धोखे की बात का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि उन्हें दुनिया समझ में आ गई। जवाहरलाल नेहरू ने कहा, “हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे।”
आखिरकार चीन के साथ हुए उस 1962 के युद्ध में भारत के हाथ वह दुर्भाग्यपूर्ण हार आई, जिसके बारे में कुछ इतिहासकार बताते हैं कि उस हार ने नेहरू को उनके आखिरी दिनों तक परेशान रखा। चीनी सैनिकों को जिस अवसर की तलाश थी वह उन्हें मिला। नेहरू का ‘पंचशील’ और ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे भारत की हार के रूप में सामने आए।
गलवान से ले कर डोकलाम और तवांग, प्रधानमंत्री मोदी से सवाल पूछने वाले एक प्रधानमंत्री मोदी के मौन की महिमा ज़रूर समझें। हो सकता है कि चीन को जस का तस रखना उसकी कम्युनिस्ट हरकतों में समय व्यर्थ करने से ज़्यादा बेहतर है। जब सब कुछ शांतिपूर्ण तरीक़ों से हो सकता है तो फिर हिंसा की क्या आवश्यकता है, गांधी जी भी यही कहते थे।
प्रधानमंत्री मोदी से चीन की गुस्ताखी पर ‘कठिन’ सवाल
जो लोग आज प्रधानमंत्री मोदी से सवाल पूछ रहे हैं उन्हें भी शायद 1962 की यादें आज भी तनाव देती हैं, शायद यही वजह भी है कि वो भी मोदी जी से ही उम्मीदें लगाए बैठे हों। लेकिन आज भारतीय सेना कारतूस की कमी के चलते वापस नहीं लौट आती, नेहरू जी की तरह वैश्विक नीतियों और निजी छवि के चलते जवानों को सिर्फ़ बलिदान के लिए नहीं सीमा पर रखा गया, भारतीय फौज आज दो चायनीज़ पत्थरों के बदले जिस तरह से लाठी तोड़कर आ रही है वो हम देख रहे हैं।
शांति के कबूतर उड़ाने की जगह आज चीन से लगी हुई सीमाओं पर भारत सड़क और इंफ़्रा निर्माण कर रहा है। सेना की तैनाती लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक बढाई जा रही है। भारतीय सेना के पास अत्याधुनिक हथियार मौजूद हैं। मेक इन इंडिया की प्रगति सभी के सामने है। ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां 1962 की तरह सिलाई मशीनें नहीं बना रही बल्कि चायनीज़ और आतंकियों की दूसरे क़िस्म की सिलाई करने के लिये गोला- बारुद और टैंक बना रहे हैं।
बाक़ी, नेहरू जी की महान भूलों पर हम विस्तार में नेहरू फ़ाइल्स (#NehruFiles) ले कर आपके सामने जल्दी ही आएँगे।